कुछ बातें रह गयी थी ,
वक़्त की धुल , उन बातों पे जम गयी थी ,उन बातों को आज फिरसे दोहराए देता हूँ ,
लो तुम्हें फिरसे आज अजनबी बनाये देता हूँ !
इस मुख़्तसर सी ज़िन्दगी ने , कितनी लकीरें खींची थी ,
वक़्त की धुल से वोह लकीरें अब धुंधलाई थी ,
उन लाकेरून को आज फिरसे सजाये देता हूँ ,
लो तुम्हें फिरसे आज अजनबी बनाये देता हूँ !
चाँद बेवफा सी दूर उफक को छु रही थी ,
आब -ऐ -जौ (brilliance of Sunlight), अब आँखों में चुब रही थी ,
बड़ी मुद्दतों बाद नींद से जागा हूँ ,
हर ख्वाब जो देखे थे , उनको बुझाये देता हूँ ,
लो तुम्हें फिरसे आज अजनबी बनाये देता हूँ !
अब न वोह ‘मैं ’ रहा , न रही वोह ‘तुम ’ थी ,
ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर , हो रही तुम ग़ुम थी ,
उन रिश्तों को आज फिरसे मिटाए देता हूँ ,
लो तुम्हें फिरसे आज अजनबी बनाये देता हूँ !
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