05 June, 2010

जो तुमने चाहा

कुछ  बातें  रह  गयी  थी ,
वक़्त  की  धुल , उन  बातों  पे  जम  गयी  थी ,
उन  बातों  को  आज  फिरसे  दोहराए  देता  हूँ ,
लो  तुम्हें  फिरसे  आज  अजनबी  बनाये  देता  हूँ !

इस  मुख़्तसर  सी  ज़िन्दगी  ने , कितनी  लकीरें  खींची  थी ,
वक़्त  की  धुल  से  वोह  लकीरें  अब  धुंधलाई  थी ,
उन  लाकेरून  को  आज  फिरसे  सजाये  देता  हूँ ,
लो  तुम्हें  फिरसे  आज  अजनबी  बनाये  देता  हूँ !

चाँद  बेवफा  सी  दूर  उफक  को  छु  रही  थी ,
आब -ऐ  -जौ  (brilliance of Sunlight), अब  आँखों  में  चुब  रही  थी ,
बड़ी  मुद्दतों  बाद  नींद   से  जागा  हूँ ,
हर  ख्वाब  जो  देखे  थे , उनको  बुझाये  देता  हूँ ,
लो  तुम्हें  फिरसे  आज  अजनबी  बनाये  देता  हूँ !

अब  न  वोह  ‘मैं ’ रहा , न  रही  वोह  ‘तुम ’ थी ,
ज़िन्दगी  के  किसी  मोड़  पर , हो  रही  तुम  ग़ुम  थी ,
उन  रिश्तों  को  आज  फिरसे  मिटाए  देता  हूँ ,
लो  तुम्हें  फिरसे  आज  अजनबी  बनाये  देता  हूँ !

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