28 May, 2010

सिलसिला -ए -संग -ए -दिल !


किसी  उफनते  दरिया के  बीच , बैठा  पत्थर  कोई ,
ठहरा  हुआ  हैं  ज़िद  पे अपनी , कहता  न  वापस  आऊँगा  ,
संजीदा  हुआ  बैठा  हैं , जाने  किस बात  पर ,
शायद  इस  उम्मीद  में  हैं  के  उसे  मनाये  कोई ,

किसी  उफनते  दरिया  के  बीच  बैठा  पत्थर  कोई !

तेज़  सांसें  चल  रही  हैं , लिए  सीने  में  चुभन  कोई ,
लड़ने  पे  आमादा , कहता  पीछे  न  लौट  पाऊँगा ,
आधा , पानी  में  डूबा  हैं  पर ,
आधा  अभी  और  हैं  उतरना  बाकी ,
शायद  जिंदा  रहने  की  हो  वजह  कोई ,

किसी  उफनते  दरिया  के  बीच  बैठा  पत्थर  कोई !

घटाओं  ने  भेजी  थी , बूंदों  भरी  मक्तूब  कोई ,
न  पढ़ा  उसने , कहता  न  समझ  पाऊँगा ,
वोह  ख़त  जल  कर  ख़ाक  हुई , उसकी  बे -रूखी  पर ,
शायद  ईस  संग -दिली  की  हो  वजह  कोई ,

किसी  उफनते  दरिया  के  बीच  बैठा  पत्थर  कोई !

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